आस्था ने कहा था कि वह अपनी मां के लिए जो आदमी तलाश रही हैं उसे जीवन में काफी स्थापित और शाकाहारी होना चाहिए। इसके अलावा वो शराब नहीं पीता हो।पांच साल पहले गौरव के पिता का निधन हो गया था। उसके बाद उनकी 45 वर्षीया मां घर में अकेले ही रहती हैं। लेकिन आखिर उन्होंने फ़ेसबुक पर ऐसी पोस्ट क्यों लिखी?
गौरव बताते हैं, “मेरे पिता कुल्टी में नौकरी करते थे। वर्ष 2014 में उनके निधन के बाद मां अकेले पड़ गई हैं। मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूं। मैं सुबह सात बजे ही नौकरी पर निकल जाता हूं और लौटने में रात हो जाती है। पूरे दिन मां अकेले ही रहती हैं। मुझे महसूस हुआ कि हर आदमी को साथी या मित्र की जरूरत है।”

क्या आपने इस पोस्ट को लिखने से पहले अपनी मां से बात की थी?
क्या लिखा था गौरव ने?
मुझे लगता है कि पुस्तकें और गीत कभी किसी साथी की जगह नहीं ले सकते। एकाकी जीवन गुजारने की बजाय बेहतर तरीके से जीना ज़रूरी है। मैं आने वाले दिनों में और व्यस्त हो जाऊंगा। शादी होगी, घर-परिवार होगा। लेकिन मेरी मां? हमलोगों को रुपये-पैसे, जमीन या संपत्ति का कोई लालच नहीं हैं। लेकिन भावी वर को आत्मनिर्भर होना होगा। उसे मेरी मां को ठीक से रखना होगा।
मां की खुशी में ही मेरी खुशी है। इसके लिए हो सकता है कि कई लोग मेरी खिल्ली उड़ाएं या किसी को लग सकता है कि मेरा दिमाग खराब हो गया है। ऐसे लोग मुझ पर हंस सकते हैं। लेकिन उससे मेरा फैसला नहीं बदलेगा। मैं अपनी मां को एक नया जीवन देना चाहता हूं। चाहता हूं कि उनको एक नया साथी और मित्र मिले।”

लेकिन क्या समाज के लोग इस पोस्ट के लिए आपका मजाक नहीं उड़ा रहे हैं?
गौरव को उम्मीद है कि उनकी इस पहल से ऐसे दूसरे लोग भी आगे आएंगे। गौरव जिस बऊबाजार इलाके में रहते हैं उसी मोहल्ले के शुभमय दत्त कहते हैं, “ये एक अच्छी पहल है। कई लोग कम उम्र में ही पति या पत्नी के निधन से अकेले पड़ जाते हैं। रोजी-रोटी की व्यस्तता की वजह से संतान भी उनका वैसा ध्यान नहीं रख पाती। ऐसे में जीवन की दूसरी पारी की शुरुआत का विचार बुरा नहीं है।”
एक सामाजिक संगठन मानविक वेलफेयर सोसायटी के सदस्य सोमेन भट्टाचार्य कहते हैं, “ये पहल सराहनीय है। लोग तो कुछ न कुछ कहेंगे ही। लेकिन अपनी मां के भविष्य के बारे में एक पुत्र की यह चिंता समाज की बदलती मानसिकता का संकेत है।”

खुद विद्यासागर ने अपने पुत्र का विवाह भी एक विधवा से ही किया था। इस अधिनियम से पहले तक हिंदू समाज में ऊंची जाति की विधवा महिलाओं को दोबारा शादी की इजाजत नहीं थी। अपने इस प्रयास के दौरान विद्यासागर को काफी सामाजिक विरोध झेलना पड़ा था। कट्टरपंथियों ने उनको जान से मारने तक की धमकियां दी थीं। लेकिन वह पीछे नहीं हटे। आखिर में उनका प्रयास रंग लाया।
लेकिन विडंबना यह है कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर के प्रयासों से विधवा विवाह को कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद पश्चिम बंगाल में विधवाओं के पुनर्विवाह की परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो गई। बनारस से वृंदावन तक तमाम आश्रमों में बंगाल की विधवाओं की बढ़ती तादाद इस बात की पुष्टि करती है।

नाटिंघम विश्वविद्यालय के स्कूल आफ इकोनामिक्स के इंद्रनील दासगुप्ता के साथ विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 की नाकामी पर शोध करने वाले कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान के दिगंत मुखर्जी कहते हैं, “ईश्वर चंद्र विद्यासागर की अगुवाई में चले सामाजिक आंदोलन के दबाव में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उक्त अधिनियम को पारित जरूर कर दिया था। लेकिन आगे चल कर समाज में इसका खास असर देखने को नहीं मिला। विधवाओं को समाज में अछूत ही माना जाता रहा।”
वह कहते हैं कि एकल परिवारो के मौजूदा दौर में विधवाओं की हालत औऱ बदतर हुई है। यही वजह है कि बनारस औऱ वृंदावन के विधवाश्रमों में बंगाल की विधवाओं की तादाद साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।