अहाना बोस
लोकसभा चुनाव 2019 में भारी जीत दर्ज कर बीजेपी ने 2014 के अपने प्रदर्शन को भी पीछे छोड़ दिया है. हिंदी पट्टी में उसे भारी जीत तो मिली ही है, उसे पश्चिम बंगाल में भी अच्छी सफलता मिली है. जब अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे बंगाल में 23 सीट जीतेंगे तो बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने घोषणा की थी कि उनकी पार्टी सभी 42 सीटों पर जीत दर्ज करेगी. उन्होंने एग्ज़िट पोल के उस नतीजे को खुलेआम ठुकरा दिया था जिसने इस बात की भविष्यवाणी की थी कि बीजेपी को काफ़ी सीटें मिल सकती हैं.

पश्चिम बंगाल में बीजेपी का उदयबीजेपी बंगाल में 18 संसदीय सीटों पर जीत दर्ज कर चुकी है और एक सामान्य सा प्रश्न है कि बंगाल में बीजेपी के इस मज़बूत प्रदर्शन के क्या कारण हैं जबकि बंगाल को धर्मनिरपेक्षता का गढ़ कहा जाता रहा है. निश्चित रूप से, बीजेपी के इस उत्थान के कई कारण और कारक हैं. वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 291 सीटों वाली विधानसभा में मात्र तीन सीटें मिली थी. इसके पहले 2014 के संसदीय चुनाव में बीजेपी को मात्र दो सीटों पर जीत मिली थी. चुनावों में इस ख़राब प्रदर्शन ने बीजेपी को अपनी संगठनात्मक संरचना को ठीक करने को प्रेरित किया ताकि वह 17वीं लोकसभा के लिए होने वाले चुनावों में बेहतर प्रदर्शन कर सके. राहुल सिन्हा और पूर्व पर्यवेक्षक सिद्धार्थ नाथ सिंह के नेतृत्व में राज्य में भाजपा बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाई थी और इसी वजह से पार्टी में संरचनात्मक परिवर्तन की ज़रूरत स्वीकार कर ली गई और इसी का परिणाम है कि आज राज्य में बीजेपी का वोट शेयर बढ़कर 40.25% हो गया है.

दल-बदल
बीजेपी को से बीजेपी में आने वाले नेताओं से काफ़ी मदद मिली. टीएमसी के पूर्व उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ममता बनर्जी से अनबन होने के कारण 2017 में बीजेपी में शामिल हुए. यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि बीजेपी में उनकी मौजूदगी ने बीजेपी को बंगाल के मतदाताओं को ध्यान में रखकर रणनीति बनाने में मदद की. जॉन बरला और निशीथ प्रमाणिक जो क्रमशः अलिपुरद्वार और कूचबिहार से चुनाव जीते हैं, वे भी टीएमसी से आए हुए हैं. तृणमूल और अन्य राजनीतिक दलों के असंतुष्टों को जगह देने में बीजेपी ने कोई कोताही नहीं बरती.
वाम मोर्चा और कांग्रेस पहले तो सीटों की साझेदारी पर राज़ी हो गए थे पर अंततः बात बनी नहीं और यह बीजेपी के लिए सोने पर सुहागा साबित हुआ. उसने बंगाल के राजनीतिक मैदान में विपक्ष के ख़ाली जगह को भरने के मौक़े को हाथ से नहीं जाने दिया. इस चुनाव में टीएमसी को 43.28% वोट मिला है और वाम दल को कोई जीत नहीं मिली है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वाम समीकरण ने बीजेपी को अप्रत्यक्ष रूप से मदद की है.
वोट ट्रांसफ़रयह बात किसी से छिपी नहीं है कि ममता पर अल्पसंख्यकों का वोट पाने के लिए उनके तुष्टीकरण का आरोप लगाया जाता रहा है. ममता बनर्जी ने अपने बयानों से बीजेपी की हिंदुत्ववादी विचारधारा की आलोचना की और इस बात का सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि भारी संख्या में हिन्दुओं ने ममता की इस आलोचना से नाराज़ होकर बीजेपी को वोट दिया है. दूसरी ओर, अल्पसंख्यकों के वोट ममता बनर्जी को मिले हैं और उनको ज़्यादा सीट मिलने की यह एक वजह है.
तथ्य यह है कि पार्टी को 2018 के पंचायत चुनावों में 18% वोट मिले थे जबकि 33% पंचायतों में टीएमसी को बिना किसी विरोध के विजय मिली थी. पार्टी को इससे नई गति मिली और अधिकांश चुनाव अभियानों में मोदी-शाह ने पर पंचायत चुनाव की तरह ही इस चुनाव में भी हिंसा को अपनी जीत का हथियार बनाने का आरोप लगाया.
इन सबके बीच मीडिया की भूमिका को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. मीडिया द्वारा बीजेपी की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आने की बात कहने से चुनाव-बाद पार्टी की छवि बेहतर हुई है. एग्ज़िट पोल में जो भविष्यवाणी की गई थी उसमें यह बताया गया था कि टक्कर बीजेपी और अन्य पार्टियों में है. दिल्ली की ओर कूच करने में क्षेत्रीय दलों को या तो बिलकुल ही नहीं या फिर बहुत ही कम महत्व दिया गया. भारत जैसे संघीय लोकतंत्र में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय हितों के बीच अंतर काफ़ी स्पष्ट हो जाता है.
इसके बाद बात उठती है हिंदुत्व की भावना की. राजनीतिक विश्लेषक शिबज़ी प्रतिम बसु के मुताबिक़, न केवल नरेंद्र मोदी या अमित शाह, पार्टी की प्रदेश इकाई राज्य के हिंदू वोटरों में हिंदुत्व की भावना भरने में सफल रही है. पार्टी की अंदरूनी कलह और खेमेबाज़ी को परे रखने और पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मज़बूत बनाने में हिंदुत्व की भावना ने चमत्कारिक भूमिका निभाई है. यहां तक कि राज्य में के चुनाव अभियान के दौरान नेताओं ने हिंदुत्व की प्रत्यक्ष चर्चा से बचते हुए एनआरसी और घुसपैठियों की समस्या के संदर्भ में इसकी चर्चा की. इस तरह जिस बीजेपी को 2014 के संसदीय चुनावों में 17%, 2016 के विधानसभा चुनावों में 10% वोट मिला था उसको 2019 के संसदीय चुनावों में 40% वोट प्राप्त होना किसी दुर्लभ उपलब्धि से कम नहीं है. सरल फॉर्मूला यह है कि वाम दलों के हिंदू समर्थक और ममता के टीएमसी से नाराज़ लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है.
एक वरिष्ठ पत्रकार देबाशीश भट्टाचार्य के अनुसार, हुगली, आरामबाग, बोनगांव जैसी सीटों पर जहां दूसरी पार्टियों की मौजूदगी के बावजूद टीएमसी काफ़ी मज़बूत हुआ करती थी, वोटों की अदला-बदली ने अपनी भूमिका बख़ूबी निभाई है. टीएमसी को राज्य में कुल मिलाकर 6-7% वोटों की हानि हुई है और यह वोट बीजेपी को गया है.
इस क्षति के बावजूद यह स्पष्ट है कि वाम दलों से जुड़े 8-9% अल्पसंख्यक वोट टीएमसी को मिला है क्योंकि वे सत्ताधारी पार्टी के साथ जुड़कर ख़ुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं. जैसा कि इस समय कहा जा रहा है कि “बामेर वोट रामे” (वाम का वोट बीजेपी को) भारी संख्या में वामपंथी हिंदुओं ने बीजेपी को वोट दिया है और बीजेपी को मिले कुल वाम मतों का यह 15% है. इस तरह, सरल शब्दों में कहें तो वाम धड़ों में मौजूद हिंदू समर्थकों ने बीजेपी को वोट दिया है जबकि अल्पसंख्यकों ने ममता बनर्जी की टीएमसी को वोट दिया है.
उधर, वाम धड़ों में मौजूद अल्पसंख्यक वोट भी टीएमसी को उस समय से मिलते रहे हैं जबसे राज्य में वाम मोर्चा ढलान पर है और इस तरह टीएमसी का वोट शेयर बढ़कर 40% से 43.28% हो गया है.
यद्यपि अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी पर यह स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक और धार्मिक कारकों की वजह से बंगाल की राजनीतिक संस्कृति में बदलाव आया है, लेकिन इतना तो तय है कि 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव में लड़ाई निश्चित रूप से बीजेपी बनाम टीएमसी के बीच ही होगी.